"भग" रूपी भगवान तो नहीं बन सकते !-अंकुर मिश्र "युगल"

संसार जन्मो का मोहरूपी कारखाना है , जहां पर प्रतिदिन हजारी की संख्या में मोहरूपी शवो का निर्माण होता है यह कार्क्रम सदियों से चला आ रहा है और सदियों तक अनवरत चलता रहेगा !इस आवागमन के कार्क्रम में अधिकतम लोग शव रूप में जन्म लेते है और शव रूप में ही शवित होकर समाप्त हो जाते है !संसार में आना और बिना किसी कर्म के मोह माया रूपी अस्त्रों से सुसज्जित होकर पारिवारिक कार्य करना और पत्रिक सद्गुणों का विनाश करना , संसार में भोग विलासो को प्राप्त करना तथा पुनः उस देह का त्याग करना जिसकी उत्पत्ति किसी विशेष कार्य के लिए हुई थी ,इस जीवनलीला को प्रत्येक निम्न एवं उच्च कोटि का व्यक्ति निर्वहन कर सकता है, और सोचे तो ऐसा जीवन तो पशु ,पक्षी भी निर्वहन करते है !
सोचिये ऐसा जीवन ही क्या जिसमे "भग" रूपी ऐश्वर्य, यश, लक्ष्मी ,वैराग्य ,ज्ञान और शौर्य की थोड़ी सी भी मात्र न हो , जो जीवन चिंताओ से ग्रसित न हो , भय से भ्रमित न हो ,हरी से हरित न हो ! मनुष्य को ऐसे कर्मो में कर्मित होना चाहिए जिससे जीवन जीवन-काल में तथा उसके पश्चात प्रसंशा की मिठास न हो ! हम "भग" रूपी भगवन तो नहीं बन सकते किन्तु कम से कम एक राक्षस की संज्ञा से उपनामित होने से तो बच ही सकते है, ये नाम भी हमें उन विद्वानों द्वारा देय होगा जो हमारे सबसे नजदीकी होगे !
"चार दिन की चांदनी फिर अँधेरी रत"
उक्ति को चरितार्थ न करे बल्कि कर्म ऐसा करे जिससे मनुष्य को सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड से प्रशंशा प्राप्त हो और "महापुरुष" की संज्ञा भी मिलेगी व् भी उन्ही के द्वारा जो "राक्षस" की संज्ञा देने वाले थे ! इस सोचनीय-सोच पर सोचनीय-सोच से जरुर सोचियेगा, कुछ परिणाम जरुर निकालेंगे !
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अंकुर मिश्र "युगल"