‘सचिन और आडवाणी’ दोनों को जरुरत है सन्यास की : अंकुर मिश्र ‘युगल’

देश को अपने-अपने क्षेत्र में महान उपलब्धिय दिलाने वाले दो महानायक सचिन और अडवाणी, आज प्रत्येक देशवाशी के लिए समस्या बने हुए है ! क्रिकेट के लिए उपलब्धियां की मशाल रचने वाले सचिन ने देश के लिए जो क्रिकेट में योगदान दिया है वह वास्तव में सराहनीय है ! एक् १६ साल के लड़के ने जिस तरह से क्रिकेट में आकर देश को वो उपलब्धि प्रदान की जिसके लिए टीम तरश रही थी, इसके पहले टीम में गावस्कर , कपिल देव और बिशन सिंह बेदी जैसे खिलाड़ी तो थे लेकिन इन सबके बावजूद क्रिकेट में भारत का विश्वमानचित्र में कोई आस्तित्व नहीं था, खिलाड़ी तो खेलते थे लेकिन जीतने के लिए नहीं, केवल हार से बचने के लिए ! लेकिन इस महानायक के आते ही विश्व के गेंदबाजों के छक्के छूट गये ! टीम ने २००७ में २०-२० विश्वकप जीता, २०११ में विश्वकप जीता और हजारों के तादात में रन बना डाले, इनके हर रन के साथ एक् नया रिकार्ड बन जाता है ! लेकिन अब इस बल्लेबाज का पदार्पण उस उम्र में हो चूका है, जिस पर किसी भी क्रिकेटर का खेलना नाजायज है , आलोचक प्रतिदिन नए-नए शब्द ढूढते है, और सत्य भी है विश्व के किसी भी क्रिकेटर ने इस उम्र तक क्रिकेट नहीं खेला, और इसीलिए जरूरत है इस महानायक को सन्यास लेने की जिसके बाद टीम में युवाओ को मौका मिल सके ! वही दूसरी ओर है राजनीती के महानायक लाल कृष्ण आडवानी, जिन्होंने जनता पार्टी को तब संभाला जब भारतीय राजनीती में इस पार्टी का कोई अस्तित्व भी नहीं था , कोई भी इसे स्वीकारने को तैयार नहीं था, नब्बे के दसक में इस पार्टी को लोकसभा चुनाव में २ सीटे ही मिल पाई, लेकिन अगले ही चुनाव में जिस तरह से आडवाणी का हिंदुत्व का जादू चला, ऐतिहसिक है ! इनके पहले पार्टी में नेता तो थे लेकिन उनका आस्तित्व नहीं था , राममंदिर का मुद्दा केवल मुद्दा बना हुआ था, इस महानायक ने हिंदुत्व के लिए जो जागरूपता देश भर में लायी वो वास्तव में सराहनीह है ! उनकी रथ यात्रा में वो जादू चला की अगले ही चुनाव में पार्टी ने इतिहास रच डाला, और देश को अटल बिहारी बाजपेयी जैसे प्रधानमंत्री दिए ! लेकिन वो अभी भी प्रधानमंत्री के प्रतीक्षा सूचि में है और भाजपा के भावी प्रत्यासी बने हुए है ! पार्टी में सुषमा स्वराज , अरुण जेतली और नरेन्द्र मोदी जैसे भावी नेता है लेकिन इन सबके बावजूद इस पार्टी में आज की जो खलबली है, वो पार्टी के भविष्य में खिलाफ है ! समस्या एक् है इस महानायक जिनकी उम्र ८० वर्ष से ज्यादा है और फिर भी पार्टी को जकडे हुए है ! समस्या दोनों के साथ एक् जैसी है, हिंदुत्व के महानायक और क्रिकेट के बादशाह दोनों की उपलब्धियों को नकारा नहीं जा सकता पर आज के आज की जरुरत है दोनों के सन्यास की ! इनका सन्यास ही आज के भारतीय क्रिकेट और भाजपाई राजनीती का हल हो सकता है !

वालमार्ट के पास है दो ही विकल्प , रुकेगा या लूटेगा : अंकुर मिश्र "युगल"

इतिहास गवाह है भारत में जितने भी विदेशी आये है उनके पास केवल दो ही विकल्प थे : उन्होंने या देश को लूटा है या फिर यही पर बस गए है ! मुग़ल शासको ने देश में आक्रमण किया लेकिन उनकी नीति देश को लुटाने की कभी नहीं थी, उन्होंने यही बसकर अपने परिवार के साथ जीवन यापन किया ! लेकिन वाही यदि हम अंग्रेजो के शाशन काल में नजर डाले तो विपरीत था , उन्होंने देश में आना इसलिए उचित समझा क्योंकि हम सोने की चिड़िया थे और हमें खोखल करना उनका लक्ष्य था जो उन्होंने किया और बाद में किसी अंग्रेज शासक ने ये भी लिख दिया की हम तो मुठ्ठी भर लोग आये थे भारत से एक् पत्थर ही कफी था हमें भागने के लिए, लेकिन अब कोई क्या कर सकता है उस अंग्रेज का और हमारे जैसे भारतवासियों का जो उन नेताओ के गुलाम बनकर बैठ जाते है जीनको वो खुद चुनकर भेजता है ! जिस तरह से किसी समय में पेप्सी और कोक ने देश में पदार्पण किया था और हम नेताओ की सुनते रहे थे और हसते हसते आज गुलाम बन बैठे है इसी तरह हो सकता है वालमार्ट भी एक् दिन हमारा राजा बन बैठे लेकिन ऐसी केवल कल्पना की जा सकती है ! हमारे नेताओ में संसद में जिस तरह से वालमार्ट को लेन की जद्दोजहद की वो वास्तवमें सराहनीय है, विरोध करने वालो की कुतर्क और पक्ष में होने वालो के तर्क अब तक जनता के समझ में नहीं आये ! जिस वालमार्ट को जनता के लिए लाया जा रहा है उस जनता से तो एक् भी बार नहीं पूंछा गया की ये आना चाहिए या नहीं ! राज्यसभा और लोकसभा के अंदर आपस में आंखमिचौली खेलकर एक् और प्रधितना की जंजीर जकड दी नेताओ ने देश पर ! और सबसे सरल बात तो यह है की ईस्ट इण्डिया कंपनी ने कोलकता से पदार्पण किया था तो उसे दिल्ली तक आने में समय लगा लेकिन इस वालमार्ट का पदार्पण तो दिल्ली से ही हो रहा है तो उसे तो और सरलता होगी अपने लक्ष्यों को पाने में ! वो चाहे तो देश में रुक सकता है या फिर लूट कार यहाँ से जा सकता है ! भारत के अंदर अभी तक व्यापारिक कंपनियों ने दो ही रवैये अपनाए है, अब सोचना वालमार्ट को है ! अभी एक् नए दल आम आदमी के मुखिया ने कहा की वालमार्ट के लिए जन-मत होने चाहिए, उन्हें तो जनता के बारे में यही सोचना चाहिए जिस देश में कसाब और अफजल गुरु जैसे आतंकवादी को सालो तक मेहमान बनाकर रखा जाता है , भ्रष्टाचार को रोकने लिए कोई कड़ा कानून नहीं होता, पेप्सी और कोक जैसी बाहरी कंपनियों का शाशन होता है वहाँ इस वालमार्ट के लिए कैसा जनमत ! यहाँ तो यह कहना अनुचित नहीं होगा की जनता का जनमत केवल एक् दिन होता है चुनाव में और उसी दिन उसकी कीमत होती है उसके बाद या पहले जनता केवल और केवल नेताओ की नौकर(सेवक) होती है! इस देश में कैसा जन-मत ! यहाँ आज जन-मत की कीमत होती तो क्या करोड़ो के घोटाले करने वाले कलमाड़ी , यदुरप्पा जैसे नेता जिन्दा होते है ! जनता का काम है सर्कार द्वारा थोपे गए कानूनों पर अम्ल करना ! उनके द्वारा आपस में आरक्षण औअर क्षेत्रवाद की राजनीती में हिस्सा लेना बस !

देश की दशा पर दिल से नहीं दिमाग से सोचने की जरुरत है : अंकुर मिश्र ‘युगल’

देश में परिवर्तन के लिए हमेशा से लोकतान्त्रिक परिवर्तन की जरूरत रही है, वैसे तो आज की राजनीति को देखते हुए देश में लोकतंत्र है , ऐसा सोचना भी गुनाह है ! देश को बुरी तरह से तानाशाही सरकार ने जकड़ रखा है, और वो भी ऐसे दल ने जिसे देश की आजादी में प्रमुख सहायक माना जाता रहा है ! जिसके जवाहर लाल नेहरू जैसे नेताओ की वास्तविकता को नकारते हुए लोग आदर्श मनते है, जिस दल ने ५० से ज्यादा सालो तक आजाद देश में शासन किया हो और देश की हालत उस मझधार तक न पहुच पाए जहां के लिए वो वांछनीय हो ऐसी सरकार को क्या कहेंगे ?? कहने को तो इस दल में विद्वानों का भंडार है लेकिन उनकी विद्वता का इस्तेमाल आखिर किस देश के लिए होता है ? देश की वर्तमान समस्याओ को बताने की जरुरत नहीं है एक साधारण आदमी भी प्रत्येक समस्या से अवगत है ! जरुरत है निवारण की और निवारणकर्ता की ! ऐसी समस्याओ को देखते हुए हुए देश के राजनैतिक गलियारे में एक नए दल का आवरण, हो सकता है देश को एक नई उर्जा प्रदान करने में सहायक हो सके ! अरविन्द केजरीवाल जिस व्यक्ति को आज किसी पहचान की जरुरत नहीं है ! देश में समाज सेवक से राजनेता की ओर मुडने वाले इस व्यक्ति ने पिछले एक साल में समाज सेवक अन्ना हजारे के साथ जन जागरण का जो कार्य किया है वो वास्तव में सराहनीय रहा है ! अब उनके इस राजनैतिक दल को जनता का कैसा नजरिया मिलता है यह देखने लायक होगा !
वैसे आज की नजर से देखा जाये तो देश की बिगड़ती समस्या के निवारण के लिए हमेशा किसी न किसी नए दल ने ही परिवर्तन किया है और आज के राजनैनिक दलों और राजनेताओ को देखते हुए फिर से एक बदलाव की जरुरत देश को है ! पक्ष और विपक्ष दोनों ही अपने कर्तव्य भूल चुके है ! दोनों का यह नजारा हिया दिन में संसद के अंदर कुर्सिय फेंकते है और रात में एक् साथ भोजन करते है , आखिर इसका मतलब क्या निकला जाये ?? क्या जनता इन पार्टियों के लिए ‘नौकर’ है !! जिस सरकार को आम जनता ने चुनकर वहाँ तक पहुछाया है जो देश के लिए नौकर है वो आज अपना पद भूलकर आम जनता को नौकर समझ रहे है ! जाब कभी भी मनुष्य अपना कर्तव्य भूलकर मालिक बनाने की गलती करता है तब-तब उसे इसका खामियाजा भुगतना पड़ता है ! अब बारी है इन तानाशाओ की ! अभी तक देश में कमी थी विकल्प की लेकिन आज देश को केजरीवाल ऐसा विकल्प दे सकते है जो इस भ्रष्टता को समाप्त करने में सहायक हो सकता है ! आज यहाँ भी अनेक सवाल खड़े हो रहे है , आखिर इन पर विश्वास क्यों करे ? इसके लिए एक् सीधा सा जबाब है : एक् बार आप जातिवाद , क्षेत्रवाद और सभी प्रकार के वादों को छोड़कर विकास के बारे में दिल से न सोचकर दिमाग से सोचो आपका दिल भी आपको इसी विकल्प की ओर इसारा करेंगे ! और ऐसा करने के बाद उन आलोचकों को भी जबाब दे सकते है ! ऐसा लगता है दिल्ली गलियों से ये आवाजे भी आती है ,जिन्हें भैसे चराना था वो सरकारे चलते है

गडकरी को भाजपा से नही भारत से निकालना चाहिए : अंकुर मिश्र 'युगल"

कभी विकास के लिए प्रसिध्धि पाने वाले महान राजनेता अटल बिहारी बाजपेई जैसे प्रधानमंत्री देने वाले राजनैतिक दल भाजपा की आज की राजनैतिक दशा इस तरह दयनीय हो सकती है , ऐसा शायद ही किसी ने सोचा हो ! जिस राजनेता को राजनीती की परिभाषा माना जाता है, जिसने अपने कार्यकाल में विकास के इतिहास रचे उस महानेता की पार्टी की इस दयनीय दशा का जिम्मेदार आखिर कौन है ?? इस प्रश्न का उत्तर किससे पूंछे, जनता से भाजपा के आलाकमान से या फिर खुद बाजपेई जी से ?? और वास्तविकता की नजर से देखे तो जनता और बाजपेयी जी से इस प्रश्न का उत्तर पूंछना भी मूर्खता होगी अंततः उत्तर की जिम्मेदारी आती है आज के भाजपा के नेताओ से, लेकिन क्या उनके पास किसी तरह का उत्तर हो सकता है ?? अब भी ये एक बड़ा प्रश्न है ?? इस राजनैतिक दल में महान नेताओ की कमी नहीं है, लेकिन किसी महान विचारक के कथन है : “किसी भी अच्छे और बड़े कार्य के लिए सञ्चालन का अच्छा होना अत्यंत आवश्यक है !” लेकिन क्या गडकरी और अडवाणी जैसे राजनेता भाजपा को सही सञ्चालन दे रहे है ?? जिस व्यक्तित्व के अंदर खुद के बोलने में नियंत्रण न हो , क्या वो किसी दल का नियंत्रण कर सकता है ! स्वामी विवेकानंद जैसे महपुरुष की तुलना आज के आतंकवादी दाउद से करना मूर्खता कहलायेगा या पागलपन ! जिस महापुरुष ने अपना जीवन देश सेवा के न्योछावर कर दिया उसकी बौद्धिक क्षमता की तुलना किसी भी देशद्रोही से करना खुद को देशद्रोही ही दिखाता है, और वो भी ऐसे राजनैतिक दल द्वारा जो आपकी ज्म्मेदारियो के लिए जाना जाता है ! गडकरी की इस मूर्खता या पागलपन से आतंक फ़ैलाने वाले समूहों को सकारात्मक सोच मिलेगी और देश में आतंक का शय बढ़ सकता है ! ऐसे वक्तव्यों के लिए गडकरी को देशद्रोही कहना अनुचित नहीं होगा ! उन्होंने इस कथन को क्यों कहा , क्या वो अभी तक अरविन्द केजरीवाल द्वारा लगाये गए आरोपों से नहीं उबरे या फिर उन्हें खुद के भाजपा संचालक होने का घमंड है? कारण कुछ भी हो देश को ऐसे वक्तव्य एक गलत छवि देते है , और इस तरह के कारणों को देखते हुए उन्हें अपने सञ्चालन को छोड़कर देश से माफ़ी मांगनी चाहिए, जिस देश में भ्रष्टाचार के लिए आवाज उठाने वाले असीम त्रिवेदी जैसे व्यक्ति को जेल में डाला जा सकता है तो क्या आतंकवादियो की तुलना राष्ट्रपुरुष से करने वाले को खुले आसमान के नीचे घूमने देना खतरा नहीं दे सकता ! देश के अंदर भ्रष्टाचार के खिलाफ आवाज उठाने की आजादी नहीं है , उसके लिए जेल के दरवाजे तुरात्त खोल दिए जाते है तो क्या आतंकवाद फ़ैलाने के लए आजादी हों चाहिए ! यह प्रश्न जनता के लिए है और जनता को यह तय करना है की आखिर देख को कौन चलाएगा, आतंक को सह देने वाला एक व्यक्ति या कोई और !!

क्या अब भी दलालो की इस नीति को राजनीती कहेगे : अंकुर मिश्र 'युगल

अब जनता आखिर भरोसा किस पर करे और किस पर न करे, उस नेता पर जो चुनाव के समय लम्बे लम्बे वादे करता है ? या उस पर जो विधायक, सांसद य मंत्री बन जाने के बाद उस क्षेत्र में एक भी बार नहीं आता ? या उस नेता पर जो बेदाग क्षवि होने के बावजूद हजारों घोटलो से लदा होता है ? या उस नेता पर जो वंसवाद की राजनीती से घिरा हुआ हुआ है ? क्या सोचता होगा वो एकल मनुष्य जिसने पना जीवन देश की सेवा में न्योछावर कर दिया, क्या बीतती होगी उस मनुष्य पर जो खुद राजनीती की परिभाषा बन गया , क्या बीतती होगी उस मनुष्य पर जो देश के सर्वोच्च पद पर रहते हुए भी एक रुपये में पूरा कार्यकाल बिता गया, क्या बीतती होगी जिसने इस लोकतंत्र के निर्माण में अपना पूरा जीवन लगा दिया ! अब सबसे बड़ा प्रश्न यही है की क्या इसी घोटालों की श्रंखला को देखने के लिए उन्होंने अपना पूरा जीवन लगाया था ! पक्ष-विपक्ष की राजनीती बनायीं ताकि वो देश की कमियों को दूर किया जा सके लेकिन नतीजा आज दोनों ने मिलकर देश में गरीबी, बेरोजगारी, भ्रष्टाचार जैसे मुद्दों को दूर करने के लिए नहीं बल्कि वोटबैंक के लिए इस्तेमाल करने की ठान रखी है ! वो कहते है इन मुद्दों को खत्म कर दिया तो वोट कैसे मांगेगे ! अभी हल ही में राष्ट्रीय स्वयं सेवाक संघ और नरेन्द्र मोदी के बिच संगोष्ठी हुयी, साभी जनते है नरेंद्र मोदी की कुछ कमियों को छोड़ दिया जाये तो वो एक विकास पुरुष ही कहलायेगे ! और देश को ऐसे ही संच्लक की जरुरत है ! लेकिन इस संगोष्ठी के बाद नतीजा ये आता है की उन्हें देश के प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार नही बनाया जा सकता क्योंकि वो प्रधानमत्री बनाए तो चुनाव लड़ने के मुद्दे खत्म हो जायेगा ! हो सकता है देश में गरीबी, बेरोजगारी और भारश्त्चार जैसे मुद्दों की समाप्ति हो जाये ! इस सोच को क्या कहेगे आज की राजीनीति में राष्ट्र की राजनीती या दलालो की राजनीती ?? वास्तविकता यही है शब्द कुछ भद्दे लगेगे लेकिन देश के आज के राजनेता वास्तव में दलालो का काम ही कर रहे है वो भी भारत को बर्बाद करने वाले दलालो का, इनकी आय तो लाखो में होती है लेकिन खुद की जमापूंजी अरबो में होती है ! ऐसा दलाल जो अमनी माँ का भी अपमान करने से नहीं चूकता ! तरीका कोई भी हो इनके स्विस बैंक के खातों में समात्ति जती रहनी चहिये कहा से और कैसे इससे कोई मतलब नहीं है, शुक्र है उस आम डमी का जिसने जुर्रत और मेहनत की इन दलालों के दलाली के छिट्ठे खोलने की, वरना ये हम तो मौन ही थे और उनके आपसी भाईचारे से ये मौन धंधा चल ही रहा था ! इन सब बातों के बाद भी प्रश्न भी भी यही है हम वोट दे तो किन्हें दे ????

'मंदिर' नहीं व्यापार का केंद्र कहो उसे : अंकुर मिश्र ‘युगल’

ग्रामीण विकास मंत्री ‘जयराम रमेश’ के द्वरा कहे गए शब्दों में कोई राजनीती नहीं थी, देश को मंदिर नहीं शौचालयों की जरुरत ज्यादा है ! मंदिर एक आस्था का केंद्र मन जाता है और आस्था दिल से होते है दिखावे से नहीं, देश के मदिर आज खुले व्यपार के अड्डे बाण चुके है! इस तथ्य से कोई भी अनभिग्यनहीं है लेकिन क्या करे वो उस अन्धविश्वास का सीकर है जिसने उसे इस व्यापर का भागीदार बनाने के लिए विवास कर रखा है ! वो ग्रन्थ पढता है लेकिन डर से प्रेम से नहीं, मंदिर जाता है प्यार के लिए व्यापर के लिए ! इश्वर से भी व्यापर के रिश्ते है जनता के आज कल : वो कहेगा आप मेरा ये कम कर दो तो मई ये करूँगा !!.......... ### और इसी व्यापारिक केंद्र को बनाने के लिए हमारी सरकार, हमारे उद्योगपति करोणों की संपत्ति खर्च करते है वो भी किसी आस्था के लिए अपने लाभ के लिए, कोई सोचता है मंदिर बनवाओ चुनाव आने पर ‘वोट’ के लिए इस्तेमाल करेंगे ! कोई सोचता है मंदिर बनवाओ कर में कुछ छूट मिल जायेगी ! कोई सोचता है मंदिर बनवाओ मेरा ये कम हो जायेगा ! लेकिन किसी ने इसे धार्मिक स्थल बनवाने की नहीं सोची ! यह है हमारा देश ‘धर्म’ गुरु ..?? यहाँ आज किसी को वो दिन भी याद नहीं होगा जब स्वामी विवेकानन्द ने गीता का मतलब पुरे विश्व को बताया था, हम आधार है सभी धर्मो का लेकिन आज तो हम ही निराधार है, खुद के धर्म को व्यापर बना दिया है ! बात उस बात की जिसकी जरुरत देश को सबसे ज्यादा है, हम प्रदुषण के मामले में दिन दिन उन्नति कर रहे है, कोई गौरव के बात नही है....... ! प्रमुख आधार क्या है इस प्रदुषण का देश की जनता का मलमूत्र, खुले आसमान के नीचे शौच क्रियाएँ , खुले आसमान के नीचे कूड़ा करकट ......! लेकिन देश की सरकार के पास, देश की जनता के पास, उद्योगपतियों के पास इसके लिए पैसे नहीं है ! जनता को खुले में जाकर प्रदुषण उर गन्दगी फैलाना मंजूर है ! सरकार को इस गन्दगी को समाप्त करने के लिए वादे करना मंजूर है, उद्योगपतियों को अपने कारखाने लगाकर प्रदुषण फैलाना मंजूर है लेकिन हजारों में बनने वाले “शौचालय” बनवाना मंजूर नहीं है ! वाही अंधविश्वास की बात आयेगी , कही से एक पत्थर निकल आये करोडो का मंदिर बन जायेगा ! करोडो की सुरक्षा लगा दी जायेगी, करोडो रुपये पंडितो और पुजारियों में खर्चा कर दिए जायेगे लेकिन इस हजारों की चीज के लिए कोषागार में , घर में पैसा नहीं है ! यदि ये ढूंढे की जिम्मेदार कौन है तो दोषारोपण की कहानियाँ तैयार हो जायेगी सरकार जनता पर और जनता सरकार पर दोष की किताब लिख देगी, चुनाव आने पर ये बाते ण जनता को यद् रहेगी और न ही सरकार को ! और प्रदुषण की यह क्रिया दोबारा से शुरू हो जायेगी ! शिकार प्रकृति होगी जिसने सबकुछ दिया ! आब भी समय है आस्था को ज़िंदा रखकर, पहले आवश्य चीजों पर धयान दो ! इश्वर भी कर्म को प्रथम बताते है ! कर्म ! कर्म ! कर्म !

‘हो सकता है’ इस विकल्प के पास कोई ‘विकल्प’ हो : अंकुर मिश्र ‘युगल’

‘विकास’ का शब्द वैसे तो भारत के लिए प्रयोग करना जायज नहीं है, कारण साधारण है ‘विकास’ न होना ! अंग्रेजो से आजादी के देश को ६५ साल हो चुके है लेकिन देश की आजाद कहना देश के लिए नाजायज होगा ! भ्रम की राजनीति, विकास की खोखली राणनीति और देश का देशीय भ्रष्टाचार है जो देश के पतन में पूरी जिम्मेदारी से साथ निभा रहे है ! लोकतंत्र का एक दरवाजा है जो देश सञ्चालन के लिए हमारे पूर्वजो ने बनाया था इसे देश सञ्चालन की राजनैतिक किताब भी कह सकते है लेकिन इस किताब के नियमों को जिस तरह से राजनैतिक डालो और राजनेताओ ने तोडा है उसे कोई साधारण शैतान नहीं कर सकता ! चुनाव जो हमें हमारा विकासकर्ता चुनने की छूट देता है उसे इन राजनेताओं ने राजकर्म बना रखा है, राजकोष का पैसा पहले इन वोटो के लिये चुनाव प्रचार में लगाया जाता है फिर जनता से लूटा जाता है और इसके बाद इअसे देश में न रखकर स्विस-बैंक जैसे कोषागार में जमा कर दिया जता है, और फिर बात होते है की देश के विकास के लिए पैसा नहीं है ! आखिर पैसा होगा क्यों जब उस चक्र का पालन ही नहीं हुआ जिसमे देश का विकास भी अंग था ! चक्र में देश है, जनता है, चुनाव है, वोट है, संसद है और अनेक तथ्य है लेकिन उसमे ऐसे तथ्य नहीं है जिनकी देह को जरुरत है, उन तत्वो की जगह देश के देशीय भ्रष्टाचार, क्षेत्रीय क्षेत्रवाद, आरक्षणवाद ने ले रखी है, समय ऐसे है की देश में इस राजनीति से हटकर देश को विकास की राजनीती देने वाले लोकतंत्र की जरुरत है ! जरुरत पड़े तो इस विकास जैसे शब्द को देश सञ्चालन के चक्र में लेन के लिए उस लोकतान्त्रिक किताब में भी परिवर्तन होने चाहिए जिसे आज के राजनेताओ ने अपने विकास की किताब बना रखी है ! कहने को तो देश अनेक क्षेत्रो में विकास कर रहा है लेकिन उस विकास के फेरे में वो देश के उस आतंरिक भाग को भूल चूका है जिससे देश का भविष्य केवल गर्त में ही हो सकता है ! देश को फिर से उसी लड़ाई की जरुरत है जो १९४७ के पहले हुयी थी, वैसे ही राजनेताओ की जरुरत है, वैसे ही कर्म की जरुरत है और अब ऐसे परिवर्तन की जरुरत है की मात्र ६५ सालो में सिस्टम इतना गर्त में न जाये ! अंग्रेजो ने तो ३०० साल से ज्यादा राज किया था लेकिन उन्होंने देश को इतना खोखला नहीं बनाया था जितना देश पिछले ६५ सालो में हुआ है वो भी इकलौते कारण की वजह से ‘राजनीती’ !! क्या लोकतान्त्रिक देश ऐसे ही होते है ??? यह देश के लिए एक बड़ा प्रश्न है ! ऐसा भी नहीं है की लोकतंत्र के तहत कुछ विकास का उदहारण न हो , देश के अंदर ही ‘गुजरात, पशिम-बंगाल और बिहार’ जैसे राज्य है जो देश के खुद आदर्श है लेकिन दिल्ली में तिरंगा फहराने वाला देश को देश के लिए आदर्श नही बना पाता ! कारण जानते हुए भी जनता चुप रहती है आखिर विकल्प क्या होगा जनता के पास ! आजादी के बाद ‘कांग्रेस’ का एकछत्र राज्य चल रहा है, कुछ समय तक भाजपा ने शासन किया लेकिन विकास अभी तक ‘कास्स्स्स्स’ में ही झूल रहा है ! जनता को इस ‘कास्स्स्स्स’ के विकल्प की जरुरत है ! अभी हाल ही में समाजसेवी से राजनीती में कदम रखने वाले अरविन्द केजरीवाल का राजनैतिक दल क्या इस समस्या का विकल्प बन सकता है ये तो जनता की सोच ही बता सकती है लेकिन इस विकल्प में कुछ अल्गाव्पन तो होगा जो उन राजनैतिक दलों में नहीं है ! हो सकता है ये राजनैतिक दल राजनेताओ की प्रमुख कमी : “शैक्षिक” निर्धारण और “आयु” सीमा को ध्यान में रखकर चुनाव मैदान में उतारे ! जब नेता युवा और शिक्षित होगा तो हो सकता है उसके कुछ विकासशील मुद्दे हो जो देश विकास में सहायक हो ! उनके अनुसार वो क्षेत्रवाद, जातिवाद, आरक्षणवाद की राजनीती से वो दूर रहेगे हो सकता है वो इस पर अमल करे ! हो सकता है केन्द्रीय राजनीती का यह विकल्प देश के विकास का विकल्प बने ! लेकिन इन सारे ‘हो सकता है’ के जबाब देश की जनता से ही मिलेगे ! आगामी कुछ प्रदेशीयचुनावो में पता चलेगा की यह विकल्प देश के लिए केन्द्रीय विकल्प हो सकता है या नहीं ! इसका इंतजार “देश को, आम जनता को , और इस तीसरे दल को” करना होगा ! ‘हो सकता है’ इस विकल्प के पास देश के विकास का कोई विकल्प हो, इंतजार है !!

यदि घर में रहकर घर के लिए बात करना जुर्म है तो मुझे भी जेल चहिये : अंकुर मिश्र “युगल”

एक हमारे देश के मेहमान है जिन्हें सलाखों के पीछे रखकर सारी सुविधाए उपलब्ध कराई जा रही है ! दूसरी तरफ असीम त्रिवेदी है जिन्हें अपने ही देश के अंदर देशद्रोह के आरोप में पकड़कर कांड किया जाता है ! देश ओ आजादी के ६५ वर्ष पुरे होने चले है , देश में कहने के लिए लोकतंत्र भी है यहाँ वोट देने की आजादी है अपने मन का नेता चनने की आजादी है लेकिन यदि वह नेता पंचवर्षीय के अंदर तानासहियत पर उतारकर देश विनाश में लग जाये तो उसके खिलाफ बोलने की आजादी नही है ! देश लोकतन्त के तहत चलता है, ऐसा लोकतंत्र जो आज के नेताओ ने पूरी तरह खोखला कर दिया है उनके खिलाफ बोलने की आजादी इस लोकतंत्र में नहीं है !! लोकतंत्र की सबसे बड़ी कमी, देश को भालिभाती कौन चला सकता है एक पढ़ा लिखा जवान नेता न ?? लेकिन भारत के लोकतंत्र का सबसे बड़ा खोखलापन ये है की राजनीती के पदार्पान की निम्नतम सीमा तो निश्चित है लेकिन अधिकतम सीमा की कोई चिंता नहीं है, जब पदार्पण ही ५० के बाद होगा तो देश को क्या खाक ‘जवान’ रखेगे !! वाही दूसरी ओर देश की उच्चतम शिक्षा के नियमों में फेरावदल करने वाले वाले, देश के लिए निर्णय लेने वालो की निम्तम शिक्षा निश्चित नहीं है, अत्याचारियो की फ़ौज देश के राजनीती करती है ! इन सबका होना भारत का दुर्भाग्य ही है ! लोकतंत्र के मंदिर को बचने के लिए अनेक सैनिको ने जन दी लेकिन वो षड्यंत्रकर्ता अभी भी हमारा मेहमान है , मुंबई में हाजरो निर्दोष मरे गए लेकिन कसाब का अभी तक कोई हिसाब नहीं हुआ, लोकतंत्र के पुजारी कहते है: मुस्लमान भाई नाराज हो जायेगे, लेकिन आज तक किसी मुस्लमान ने आवाज नहीं उठाई की कसाब और अफजल गुरु को फांसी न हो ! पहले मंदिर मस्जिद पर लड़वाते थे ! अब इन्हें बंद कर रखा है चुनाव के “रोमाच” के लिए ! क्या गलत किया असीम त्रिवेदी ने देश की छवि यही है वास्तविकता यही है ! लोकतंत्र के खिलाडियों संभल जाओ देश हमारा है वेरना देश में एक ऐसी महाक्रांति आयेगी की अपनी पीढियों को भी जबाब नहीं दे पाओगे : न तेरा है न मेरा है ये हिंदुस्तान सबका है नहीं समझी गयी ये बात तो नुकसान सबका है !


यहाँ तो मै भी कहूँगा यदि देश के लिए देश में रहकर बात करना ‘लोकतंत्र’ का जुर्म है तो मुझे भी जेल में बंद करो !

जीविका ‘स्वप्नान्कुरण’ का एक हिस्सा है : अंकुर मिश्र’युगल’

लोग कहते है सपने नहीं देखनें चाहिए, सपने कभी साकार नहीं होते लेकिन क्या ऐसी वास्तविकता से वो खुद जागरूप होते है? आज की दुनिया में स्वप्न ही ऐसा माध्यम है जिसके जरिये लोग संघर्ष करते है और उनका उसे सच करने का एक और स्वप्न रहता है ! जिस तरह से किसी निकाय या व्यावसायिक निकाय द्वारा एक उद्देश्य दिया जाता है उसी तरह जीवन को उद्देश्य देने का कार्य ‘सपनों’ का होता है, जिसका ‘अंकुरण‘ जीविका से होता है ! मनुष्य का पहला स्वप्न उसका जीविकापार्जन होता है उसके बाद स्वप्नों की सीमाए बढ़नी लगती है वो भी ठीक उसी प्रकार जिस प्रकार एक निकाय या व्यावसायिक निकाय के उद्देश्यों की सीमाए बढ़ने लगती है ! और इन स्वप्नों की पूर्ति के लिए मनुष्य पर्याप्त संघर्ष भी करता है ! वस्तुतः सोचा जाये तो ‘स्वप्न’ ही ऐसा माध्यम है जिसके जरिये मनुष्य अपने वास्तविक कर्मो से बंधा हुआ है और उसे मानवता का एहसास होता रहता है ! और इन सबके बावजूद लोग कहते है सपने नहीं देखने चाहिये ....!! कुछ मनुष्य ऐसे होते है जो सपनो के होने के बावजूद उचित कर्म नहीं करते और हमेशा रोते रहते है की ‘मेरा कुछ नहीं हो सकता है’?? जबकी उनमे कोई कमी नहीं होती कमी होती है उनके कार्य करने के तरीको में यदि वो सभी अपने कार्य करने के तरीको में ध्यान दे उन्हें उनकी कमी उन्हें जरुर दिखेगी लेकिन वो ऐसा न करके शांत बैठ जाते है और अपने सपनो को दबा देते है ! सपनो को दबाना मानव प्रजाति की सबसे बुरी कमी है! प्रयोग के तौर से देखे: सपनो की उत्पत्ति मानव के अनुसार उसके मस्तिष्क से होती है और यही उनका निवास रहता है, लेकिन कुछ कारणों के कारण लोग अपने सपनो को भूल जाते है और जीवन के किसी अन्य कार्य में व्यस्त हो जाते है, (हो सकता है वह भी किसी स्वप्न का एक हिस्सा हो!) लेकिन ऐसे में उनका एक स्वप्न इन्तजार की अवस्था में चला जाता है और धीमे- धीमे करके उसका ‘देहावसान’ हो जाता है ! यहाँ सोचने वाली बात यह है की जिस तथ्य का अंत शरीर के अंदर हुआ है वह रहेगा तो शारीर के अंदर ही !! और इसी तरह के तथ्य जीवन का हाजमा खराब करते है ! अतः जीवन के किसी भी ऊँचे या नीचे स्वप्न को कभी दबाएँ नहीं बस उस स्वप्न की परिपूर्ति के लिए आत्मविश्वास से संघर्ष करे, सपने अवश्य साकार होंगे !

एक और अनशन समाप्त लेकिन देश अभी भी ‘अधर’ में : अंकुर मिश्र ‘युगल”

एक और अनशन खत्म, क्या होता है इसका परिणाम इस रिचक तथ्य के लिए सभी लालायित होगे ! पिछले साल भ्रष्टाचार के लिए जिस लड़ाई की सरुआत कुछ चंद लोगो ने मिलकर की उसका वर्त्मनिक राजनीतिकरण आखिर देश की राजनीती में कितना असर डाल पता है द्रश्नीय होगा पता है लेकिन जनता जिस समाज जागती है उसी समय अनशन की समाप्ति का औचित्य कुछ समझ में नहीं आता, पहले कहा जाता है की “जब तक कुछ समधान नहीं निकलेगा, तब तक अनिश्चित कालीन अनशन रहेगा” लेकिन बिना समाधान के अनशन की समाप्ति का कुछ औचित्य नहीं बनता ! अन्ना हजारे द्वारा किये गए पिछले अनशन का कुछ परिणाम सामने भी आया लेकिन मात्र दिखावे के लिए, वास्तविक परिणाम अब तक नहीं है ! जनता कारणों को समझकर जिन व्य्क्तितो को आदर्श और जिन समस्याओ को आधार बनकर अनशन या क्रांति का हिस्सा बनती है अंततः या तो वो व्यक्ति जनता का साथ छोड देता है या जनता ही समस्या को नहीं समझती ! पूर्ववत अभी २०१२ में २ अनशन किये गए एक “अन्ना हजारे” द्वारा और दूसरा “बाबा रामदेव” के द्वरा लेकिन परिणाम क्या थे ? वास्तविकता में शून्य, और यहाँ दोशारोपड आया जनता पर ! लेकिन क्या इस अनशन या क्रांति का संचालन कर रहे महामहिमो ने जनता के बारे में सोचा ??
वास्तविकता में इस क्रांति का प्रमुख कारण संच्लक ही थे !! राजनैतिक-कारण के लिए जनता से पूंछते है लेकिन क्या अनशन और क्रांति के समय के बारे में कभी जनता की राह ली गयी या खुद के समयानुसार देश सुधर के विगुल के साथ अनशन के लिए बैठ गए ! देश किसी व्यक्ति विशेष या समूह विशेष के लिए नहीं लड़ रहा देश की लड़ाई थी “भ्रष्टाचार” के खिलाफ, और जनता को ये पता है की भ्रष्टाचारी सभी राजनातिक दलों में है अतः किसी व्यक्ति या समूह विशेष को इन्कित करके लड़ाई का लड़ना जनता और क्रांति संचालको की प्रमुख गलती थी ! इन कारणों के आलावा प्रमुख कारण खुद के नियमों को मंच के माध्यम से प्रदर्शित करना भी इस इस लड़ाई की असफलता का सबसे बड़ा कारण है प्रमुख रुप से अनशन का आकस्मिक तुडाव ! जनता जिस समय किसी मुद्दे की गहनता तक जाती है तभी अचानक खबर आती है, “अनशन की समाप्ति”.. जनता भी जान चुकी है देश की इस महासमस्या का हल एक महाक्रांति ही हो सकती है, और वास्तविकता भी यही है देश को आज ऐसी क्रांति की जरुरत है जो बलिदान मांगती है लोकतंत्र के अंदर घुसकर उसे सही करना आज, कोई बुध्धिमत्ता नहीं होगी ! देश के लिए पहले क्रांति के जारिये एक सभ्य लोकतंत्र की जरूरत है फिर उस लोकतंत्र को सभ्यता से चलाने के लिए सभ्य व्यक्तियों की जरुरत है ! अतः किसी अनशन या क्रांति का राजनीतिकारण या फिर अनशन का आकस्मिक समापन देश की जनता के विचारों से परे है आखिर इसी क्या कहे ???

अंकुर मिश्र “युगल” : मै खुद अगस्त २०११ के अनशन में अन्ना टीम के साथ २ दिन तक जेल में था, मुझे उस समय की क्रांति से लगा की देश में कुछ हो सकता है लेकिन आज जिस तरह से अनशनो का राजनीतिकरण और आकस्मिक समापन हुआ, मुझे लगा इस देश को अब बलिदानी महाक्रांति के आलावा कुछ नहीं बचा सकता !!

"आत्मा"

‘आत्मा’ एक प्रश्न जो हमेशा मस्तिस्क में एक संदिग्ध अवस्था में रहता है !
आखिर क्या है ये आत्मा, इसकी वास्तविकता क्या है ?
किसी भी तथ्य पर कैसे भरोषा कैसे किया जाये इसका भी कोई वास्तविक प्रमाण नहीं है ! अध्यात्म की सुने या वैज्ञानिको की हमेशा संदेह की अवस्था रहती है !
“अन्यों अंतर आत्मा विग्यानमया” उपनिषदों में “आत्मा” के सन्दर्भ में कहा गया है ! लेकिन वास्तविकता यही है की जिस तरह किसी भी निर्जीव वास्तु से कार्य करवाने के लिए एक उर्जा की जरुरत होती है ठीक वैसे ही शरीर को कार्य के लिए उर्जा का निर्गमन में आत्मा की महत्वपूर्ण भूमिका रहती है, और मानव शारीर में ‘दिमाग’ और ‘आत्मा’ ही ऐसे तो जीवित तथ्य है जिनकी सहायता से मानव शरीर चलता है !
जैसे किसी तत्व के लिए इलेक्ट्रान, प्रोटान और न्यूट्रान आवश्यक होते है ठीक उसी प्रकार किसी शरीर की सबसे आवश्यक तथ्य ‘आत्मा’ ही है ! आध्यात्म में कहा गया है ‘आत्मा’ अजर अमर है ! लेकिन इसका रूपांतरण होता रहता है ! जिस तरह कोई व्यक्ति शारीर पुराने वश्त्र छोडकर नए वश्त्र धारण करता है उसी तरह एक आत्मा अपना स्थानांतरण एक शारीर से दूसरे शारीर में करती है !
असीम उर्जा के भंधारण, आत्मा की परिभाषा अतुलनीय है !
शरीर की चुनिन्दा चीज जिसके बिना शारीर का की अस्तित्व नहीं है ! शारीर जो की पञ्च तत्वों का आकर्षित ढांचा है अंततः इन्ही में बिलिन हो जाता है लेकिन आत्मा का केवल स्थानांतरण ही होता है !

क्या ऐसा होता है 'लोकतत्र' : अंकुर मिश्र "युगल"

तानाशाही, लोकतंत्र, राजतन्त्र या प्रजातंत्र !!

क्या कहे इस शासन को जिसमे खुद के आलावा किसी की सुनानी ही नहीं है, देश की एक अरब से ज्यादा आबादी की आवाज कुछ चंद नेताओ के जरिये दबाया जाना आखिर किस तथ्य का 'अंकुरण' है, लोकतान्त्रिक कमियों के बावजूद देश लिखे हुए लोक्तंत्र को मन रहा है उसके नियमों का पालन कर रहां है जनता को खा जाता है वो अपनी शिक्षा का प्रयोग नहीं कर रहा है लेकिन क्या उस लोकतंत्र या संविधान में कही लिखा गया है की देश में चुनाव लड़ने के लिए कोई निर्धारित शिक्षा होनी चाहिए और यही कारण है की देश के संचालको में अधिकतर अशिक्षित ही पहुचते है ! चुनाव लड़ने के लिए किसी निर्धारित शिक्षा का निर्धारित न होना हमारे लोकतत्र का खोखलापन दिखाता है ! दूसरा सबसे बड़ा खोखलापन जो भारतीय राजनीति को भ्रष्ट किये हुए है : चुनाव लड़ने की अधिकतम उम्र निर्धारित न होना निम्नतम उम्र तो निर्धारित कर दी लेकिन कोई भी नेता अंतिम साँस तक चुनाव लड़ सकता है ! ये तो लोकतान्त्रिक कमिय है जिन्हें जनता नजरअंदाज कर रही है, दूसरी ओर देश में जिस तरह का राजतन्त्र चल रहा और आज वही राजतन्त्र , तानाशाही बनती जा रही है उससे जनता कब तक बचेगी ! देश में राष्ट्रपति चुनाव पक्तिबद्ध है, प्रत्यासी का चयन राजनैतिक दल कर रहे है , कुछ प्रत्यासी अपने आपको इस दौड में ला रहे है लेकिन सोचनी बात यह है की देश के महान व्यक्तित्व भारत रत्न : "अब्दुल कलाम " जो एक अरब से ज्यादा लोगो की पसंद है , को राजनेताओ ने इस पद से दूर क्यों रखा हुआ है ! आखिर वो पद "देश के प्रथम नागरिक" का पद होता है और उसी पद के लिए देश की आवाज नहीं सुनी जा रही आखिर उनमे कमी क्या है :
१. उनमे निर्णय नेले की क्षमता है !
२. महान वैज्ञानिक है , पूरा देश उन्हें पसंद करता है !
३. देश के विकास के बारे में सोचते है !
४. किसी दल विशेष के लिया काम नहीं करते !
५. उन्हें किसी की चलूसी करनी नहीं आती !
यह प्रश्न किसी व्यक्ति विशेष का नहीं है यह प्रश्न है पूरे देश का ! जो किसी दल या राजनेता से नहीं यह प्रश्न है भारत के संविधान से, भारत के सुप्रीम कोर्ट से ! किसी राजनेता या दल से प्रश्न पूंछने का कोई औचित्यही नहीं है ! सभी घटक है लेकिन संगठित है ! आपकी कूटनीतियो की किताब के नियम कभी निराधार नहीं जाने देते ! सोचनीय लेख है , संविधान में परिवर्तन की जरुरत है , यदि ऐसा होता है लोकतंत्र तो हमें नहीं चाहिए लोकतत्र !!
क्या जनता निराधार है ???

“इश्क”, अतुलनीय भारत की अतुल्य पहचान : अंकुर मिश्र “युगल”

इश्क पर जोर नहीं,
ये तो वो ‘आतिश’ है ग़ालिब !
लगाये न लगे ! बुझाये न बुझे !
उपर्युक्त पंक्ति वैसे तो साधारण है लेकिन वास्तविकता असाधारण है,शब्द छोटा है, लेकिन किसी व्यक्तित्व को “साधारण से असाधारण या असाधारण से साधारण” बनाने में अहम भूमिका होती है! शादियों से चली आ रही इश्क की कहानिया तो सभी ने सुनी ही होगी लेकिन इसी शब्द पर आधारित “सत्यमेव जयते” देखने के पद दिल दहल जाता है, “प्यार, मोहब्बत, इश्क, लव” इन खूबसूरत शब्दों को वास्तव में किन विषम परिश्थितियों से गुजरना पड़ता है ! जैसा कहा जाता है “ इश्क :लगाये न लगे ! बुझाये न बुझे !” इस जीवन से कोई जितना दूर है उतना दूर है लेकिन एक बार जिस व्यक्तित्व ने अपना पदार्पण कर लिया उसे यहाँ से निकलना “दूभर” हो जाता है ! इस “अंकुरित” प्यार से या तो “युगल” बन जाते है या फिर ऐसी कहानिया सुनने को मिलती है जो एक परिवार को विखंडित कर देती है ! भारतीय संस्कृति के रीती-रिवाजो के हिसाब से अधिकतम ग्रामीण परिवार इए तरह के रिश्तों को स्वीकार नहीं करते जो “आज के भारत” की प्रमुख समस्या बनी हुयी है वाही शहरी जीवन में नजर डालने से पता चलता है की यहाँ ऐसे सम्बन्ध में रूकावट तो कम है लेकिन सम्बन्ध स्थापित होने के बाद संबंधो के तथ्य नकारत्म है ! वहाँ कुछ न कुछ वास्तविक समबन्धो में गिरावट आ जाती है ! इस स्थिति में कहा के “इश्क” को अच्छा समझे ?????
“सत्यमेव जयते”
के जरिये कई ऐसे कारण निकलकर आये जो “प्यार और इश्क” जैसे शब्दों को बदनाम किये हुए है , जैसे परिवार के जातिवाद का जुल्म, बेटे-बेटियों की असाधारण हत्याए, पंचायतो का बहिष्कार, ‘खापो’ की मनमानी ....... इत्यादि ! कुछ भी हो मनमानी किसी को हो, समाज की मर्यादाओ का बहाना हो या कुछ और हो , कुछ बहके लोगो की मनमानी से ऐसे रिश्तों को कुछ परम्पराओ के अधर पर अपने अधर पर जुर्म घाषित करना बिल्कुल गलत है ! “इश्क” के जरिये ऐसे सम्बन्धो का निर्माण होता है जो जीवनपर्यंत के लिए जरुरी है और जीवन में कभी समस्याए नहीं आती ! आज के समाज के लिए परिवर्तन जरुरी है, लोगो को समझना होगा की यदि किसी का जीवन हमारी रुढिवादिता को तोड़कर बनता है तो हमें तोडनी होगी ये पुराणी रुढिवादिता, रोकनी होगी पंचायतो की मनमानियां ! समस्या हमारी है पहला कदम हमें ही उठाना होगा !!
एक महान प्रेमी-दोस्त का कहना है :
“प्यार करना पाप नहीं है और विरोधी हमारा बाप नहीं है !”
प्रेम का विकास हो, प्रेमी प्रमिकाओ में में विश्वास हो,
प्रेम विरोधियो का नास हो, गर्व से कहो हम प्रेमी है, अपराध-बोध से नहीं !!
हम सब एक है : सत्यमेव जयते !!

“बाल यौन शोषण” में कितनी संजीदगी और चाहिए हमें : अंकुर मिश्रा” युगल”

“सत्यमेव जयते” के दूसरे मुद्दे की जितनी सराहना की जाये कम है, समस्या का समाधान आसान है लेकिन शुरुआत की फिक्र है, वैसे विषय ऐसा है जिसका जिम्मेदार समाज का हर जिम्मेदार व्यक्ति है, कुछ अपने अधिकारों को भूल जाते है और कुछ इनका प्रयोग ही नहीं कर पाते और शिकार हो जाता है वो “नादान” जिसे उस शोषण की परिभाषा भी नही पता ! उस “नन्ही सी जान” का विश्वास कोई नहीं करता जो झूट बोलना भी नहीं जनता, यही वास्तविकता है हमारे समाज की, या उस “नर्क” की जहां ऐसे कुकर्म या अत्याचार छोटे छोटे बच्चो पर होते है ! कुछ समय पहले एक सर्वे हुआ जिसमे यह पता चला की भारत की कुल नन्हे बच्चो के 53% बच्चो का “यौन शोषण” बचपन में हो जाता है, यह सर्वे दिल-दहला देने वाला तथ्य सामने लाया, हर २ बच्चो में से एक बच्चा इस अत्याचार का शिकार हो चुका होता है, और “अत्याचारी” कौन होता है: हमारे हमज का एक “सभ्य” नागरिक जिसकी समाज पूजा करता है ! यही काला “सत्य” है हमारे “समाज” का !
इस समस्या को लोग आसान बताते है, और अत्याचारियो को इसका लाभ मिलता रहता है, उनके इस क्रियाकलाप पर कोई फर्क भी नहीं पड़ता, जरुरत है ऐसी जागरूपता की समाज के इस अत्याचार को रोक सके और यह संभव है “पूरे समाज” की जागरूपता से ! “सत्यमेव जयते” के माध्यम से कुछ ऐसे व्यक्तितो के विचार बाहर निकल कर आये, जिनका बचपन दिल-दहला लेने वाला था ! लेकिन उनके अंदर उस “शक्ति” का समावेश था जिसके जरिये उन्होंने उस लदी को लदा जिसमे उनके “माता-पिता” ने भी उनका साथ नहीं दिया ! लेकिन जिस तरीके से उन्होंने अपने दर्दो को जनता के सामने बताया उससे भारत की जनता को जगरूप होकर, इन 53% बच्चो की जिंदगियां बचानी होगी जिन्हें हर साल किसी न किसी प्रकार यौन शोषण का शिकार होना पड़ता है ! “प्रमुख बात” इसके लिए “हमारे महान भारत” में कोई कानून नहीं है ! अतः जो करना है हमें ही करना है , “सत्यमेव जयते” के माध्यम से कुछ प्रमुख बिंदु सामने निकल कर आये जिनके जरिये हम इस अत्याचार को रोकने में कामयाब हो सकते है :-
१. हमें अपने बच्चो को ऐसी सभी चीजे बता देनी चाहिए जिनकी जानकारी उनके लिए आवश्यक है !
२. हमें उनके साथ हर हफ्ते एक वार्तालाप करना चाहिए जिसमे इस तरीके के अत्याचार से रुकने के तरीको की बात हो !
३. हमें उनकी उस बात का विश्वास करना चाहिए जिसमे वह किसी भी प्रकार के शोषण की बात कहे !
४. बच्चे की बात को कभी नजरंदाज न करे ! उस पर विचार जरुर करे, वर्ना कुछ भी हो सकता है !

इत्यादि !
इन बातों की जरुरत है आज के समाज को “आज” की वास्तविकता से अवगत करने के लिए ! समस्या का हल जागरूपता है ! बच्चो से ज्यादा “माता-पिता” को जगरूप होने की जरुरत है !
बच्चो को “1098” हमेशा याद दिलाते रहे, यह एक ऐसा जरिया है जिसके जरिये बच्चा अपनी सहायता के लिए किसी को गुहार लगा सकता है ! दस-नौ-आठ (Ten-Nine-Eight) !!

"सत्यमेव जयते" अभिव्यक्ति सत्य को सामर्थ्य दिलाने की : अंकुर मिश्र “युगल”

अभिनेता आमिर खान ने जिस जोश से “सत्यमेव जयते” की की शुरुआत की वो वास्तव में सराहनीय है ! देश के प्रत्येक व्यक्ति को इसका इंतजार था, देखा जाये तो इसमे इंटरटेनमेंट नहीं था लेकिन मुद्दा था ! इन सबके बावजूद लोगो ने इस कार्यक्रम की जो सराहना की वो वास्तव में ये दिखाती है “मेरा भारत वास्तव में महान है”! जनता का ध्यान मुद्दों की तरफ लेन की देर है, जनता हर मुद्दे से लड़ने को तैयार है ! प्रथम शो के मुद्दे की असीमित सराहना भी कम है ! “कन्या भ्रूण हत्या” जो आज की प्रमुख समस्या है ! इस शो के दौरान ऐसे-ऐसे किस्से बहार निकल के आये जो वास्तव में दिल दहला देने वाले थे ! डाक्टर, इंजिनिअर, व्यवसायी, अध्यापक एवं एक साधारण नागरिक सभी जिम्मेदार है इस खतरनाख समस्या के ! समस्या का हिस्सा तो बेचारी एक “माँ” होती है लेकिन उसे शिकार बनाने वाले कितने होते है और इस समय में वो ये भूल जाते है की आखिर इस दुनिया के अविष्कार में “माँ” की कितनी भागेदारी है ! और उसी के अंश को समाप्त करने की थान लेते है वो !!!!! माँ के लिए एक छात्रा ने कविता लिखी :-
'माँ' जिसकी कोई परिभाषा नहीं, जिसकी कोई सीमा नहीं,
जो मेरे लिए भगवान से भी बढ़कर है
जो मेरे दुख से दुखी हो जाती है
और मेरी खुशी को अपना सबसे बड़ा सुख समझती है
जिसकी छाया में मैं अपने आप को महफूज़
समझती हूँ, जो मेरा आदर्श है
जिसकी ममता और प्यार भरा आँचल मुझे
दुनिया से सामना करने की ‍शक्ति देता है
जो साया बनकर हर कदम पर
मेरा साथ देती है
चोट मुझे लगती है तो दर्द उसे होता है
मेरी हर परीक्षा जैसे
उसकी अपनी परीक्षा होती है
माँ एक पल के लिए भी दूर होती है तो जैसे
कहीं कोई अधूरापन सा लगता है
हर पल एक सदी जैसा महसूस होता है
वाकई माँ का कोई विस्तार नहीं
मेरे लिए माँ से बढ़कर कुछ नहीं।

इस शो के बात कई बातें बहार निकल के आयी: क्या भारत माँ केवल लडको की माँ है? क्या लड़कियों पर होने वाले इस अत्याचार के लड़के ही जिम्मेदार है? क्या हमारा दायित्व नहीं है की हम “माँ” के अंश का बचाए ? इत्यादि अनेक तरह के प्रश्न बहार निकल में आये ! अनेक तरह की सांखकीय देखने के बाद देखा गया की 90% इस तरह के अत्याचार शिक्षा की कमी के कारन हो रहे है, और लगभग इतने ही मुद्दे गाँवो से आते है जहां जागरूपता की कमी है ! ........... इस मुद्दे पर मैंने कई जगरूप नागरिको से बात की जिसमे अनेक आरोप एवं हल निकल के आये :

१. मेरे एक दोस्त ने कहा की “पति” चाहे तो इस समस्या को समाप्त किया जा सकता है !
२. एक डाक्टर ने ही कहा की यदि डाक्टर ही इस जाँच से मना कर दे तो इस समस्या से निजात पायी जा सकती है !
३.एक व्यंसयी ने कहा की लड़की ही इतनी सुदृण हो जाये की वो इस तरह की किसी जाँच से सहमत न हो यदि उस पर दबाव डाला जाये तो उसे पुलिस और अपने “माता-पिता” का साथ लेना चाहिए !
इत्यादि अनेक सुझाव बहार निकलकर आये लेकिन समस्या अभी भी समस्या ही है, एक कमरे में बैठकर विचार करने से कुछ नहीं होने वाल बहार निकल कर इसके लिया कुछ करना पड़ेगा ! ऐसी ही समस्या से लड़ रहे एक संगठन “स्नेह-हालया” के कई कार्य सराहनीय है उन्होंने कई सराहनीय कार्य किया है, अगर आपको इस समस्या की समाप्ति के लिए इस लदी का हिस्सा बनना है तो अपने घर से ही इस खतरनाख समस्या को समाप्त करने का प्रयास करिये !
“माँ” का आशीर्वाद हमशा आपके साथ होगा !!

“राष्ट्रपति” का पद किसी दल का “मंत्रिपद” नहीं है मान्यवर : अंकुर मिश्र "युगल"

बात राष्ट्रपति पद की जो किसी देश के लिए सबसे महत्वपूर्ण पद होता है!
एक लोकतान्त्रिक देश में प्रधानमत्री के पद को जिस गरिमा से देखा जाता है वास्तव में “राष्ट्रपति” का पद उससे भी ऊँचा होता है, उसकी गरिमा एवं उस पद पर बैठा व्यक्तित्व देश को किसी दूसरे देश के सामने प्रस्तुत करता है, देश की प्रथम व्यक्ति की तुलना उस व्यक्ति को दी जाती है ! ऐसे ही महत्वपूर्ण पद के लिए हमारे देश में चुनाव होने वाले है, लेकिन चुनाव पद्दति को देखने से जो लचीलापन एवं भ्रश्ताचारिता समझ में आती हो वो वास्तव में द्रिश्नीय है, देश को राष्ट्रपति पद में जो व्यक्तित्व आज तक प्राप्त हुए है उनमे से “अब्दुल कलाम” एवं “राजेंद्र प्रसाद” ही अतुलनीय थे, यह एक ऐसा पद है जहां किसी राजनैतिक व्यक्ति को नही बैठालना चाहिए ! लेकिन भारत के “राष्ट्रपति” चयन की जो प्रक्रिया है उससे किसी नैतिक व्यक्तित्व को पहुचाना मुश्किल ही लगता है! इस महत्वपूर्ण पद के चयन के लिए देश की राजनैतक डालो में जिस तरह का वाद विवाद, घमासान मचा हुआ है, उससे यही लगता है की “राष्ट्रपति” का पद किसी दल का “मंत्रिपद” हो ! राजनैतिक दलों का ये घमासान देश के इस पद के लिए उपयुक्त व्यक्तित्व को यहाँ पहुचने में वाधा बन जाता है, और देश को ऐसा राष्ट्रपति मिल जाता है जो देश का नहीं बल्कि किसी राजनैतिक दल विशेष का होता है! २०१२ राष्ट्रपति की चुनाव में “कलाम” जैसे महान व्यक्तित्वो के होने के बावजूद राजनेता ऐसे व्यक्तियों को चुनने में लगे है जो राजनितिक पृष्ठभूमि से सने हुये है , और भरत के प्रत्येक राजनेता की पृष्ठभूमि तो लगभग प्रत्येक नागरिक को पता होगी ! राष्ट्रपति के चुनाव पद्दति में परिवर्तन करना तो कथिक कम है लेकिन क्या जनता से इस पद के उम्मीदवार के लिए “मतदान” नहीं होना चाहिए ! राजनेताओ को इस पद में तो राजनीती नहीं करनी चाहिए, वो सुबक की चाय से रत के खाने तक के हर चीज में राजनीती करते है लेकिन देश के इस सर्वोच्च पद के लिए भ्रष्ट राजनीती देश को किस कठघरे में खड़ा करेगी ये तो भविष्य ही बताएगा !

भ्रष्टाचार "लोकपाल" से नहीं "घर" से ख़त्म होगा -"कलाम ": अंकुर मिश्र "युगल"

भ्रष्टाचार "लोकपाल" से नहीं "घर" से ख़त्म होगा : अंकुर मिश्र "युगल" पूर्व राष्ट्रपति एवं महं वैज्ञानिक अब्दुल कलाम द्वारा दिए गए संदेश में कहा गया की यदि भारत से भ्रष्टाचार ख़त्म करना है तो केवल "लोकपाल: पर्याप्त नहीं है उसके लिए हर छोटे से छोटे बच्चे को जगरूप होना पड़ेगा ! हर बच्चे को अपने माता-पिता को भ्रष्टाचार करने से मना करना होगा , यही एक ऐसा उपाय है जिसके जरिये देश में भ्रष्टाचार पर काफी हद तक काबू पाया जा सकता है , "लोकपाल" से केवल देश के जेलों को भरा जा सकता है लेकिन यदि हर घर से भ्रष्टाचार का खात्मा हो जाये तो जेलों की जरुरत नहीं पड़ेगी, और हमें देश को बचाने के लिए जरुरी ही नहीं की जेलों को ही भरा जाये उससे कानून व्यवस्था में भी फर्क पड़ेगा और समस्या समस्या ही बनी रहेगी ! इन वक्तव्यों को लोकपाल के लिए संघर्ष कर रहे "अन्ना हजारे" ने भी स्वीकार किया ! वैसे इन वक्तव्यों में ताकत भी है! "अब्दुल कलाम " की पुस्तक "विसन-२०२०" भी इन्ही सब पर जोर देती है, देश के ऐसे महानायक जो २०१२ में होते हुए भी २०२५ की सोचते है, जिनका अनुभव देश के प्रत्येक क्षेत्र में है, देश को परमाणु शक्ति से ओत-प्रोत कर दिया, बच्चो के प्यारे "महान वैज्ञानिक" देश की हर समस्या में साथ देने वाले ,, उनके ये वक्तव्य हर छोटे बच्चे को प्रोत्साहित करेगे ! बच्चे ही परिवार का वो हिस्सा होते है जिनकी किसी भी बात को घर वाले मान सकते है ! देश की सबसे बड़ी समस्या "भ्रष्टाचार" से लड़ाई के लिए उनके इन वक्तव्यों से देश को काफी सहायता मिलेगी ! देश से बुरे ह्लातो को खात्मा करना है न की बुरे आदमी बनाना, अतः जेल भरने से कोई फायदा नहीं है ! सबसे छोटी इकाई "घर" ही ऐसा तथ्य है जिसके जरिये जिस समस्या ने निपटा जा सकता है !

“करो या मरो” की वास्तविकता : अंकुर मिश्र "युगल"


शहीद दिवस के अवसर में कुछ ऐसे व्यक्तित्वो से मिलन हुआ जिनका कितना भी व्याख्यान किया जाये कम है ! हिंदी साहित्य की महान प्रतिभा “डा. मदनलाल वर्मा ‘क्रांत’ जी” एवं आई.ए.एस.“डा. सिन्हा जी”! इन महान व्यक्तित्यो के किसी परिचय की आवश्यकता नहीं है ! इतिहास की महान पुस्तकों के इन रचयिताओ ने “शहीद दिवस” में कुछ ऐसी महान बातें बताई जो वास्तव में सत्यता के बावजूद बहुत ही कम लोगो को मालूम है !
महात्मा कहे जाने वाले मोहनदास कर्म चंद्र गाँधी ने आखिर किस अहिंसा की शक्ति से देश को आजाद कराया, वो भारत का नहीं बल्कि अग्रेजो का कम कर रहे थे ! क्या उनके किसी भी आन्दोलन से लगा की “आजाद भारत” की सोच रखते थे ! खुद को राष्ट्रपिता कहलवाने से भी नहीं सकुचाये , पिता तो निर्माता होता है क्या वो भारत के निर्माता थे ????
अनेक ऐसे आंदोलनों का हिस्सा बने जिनका भारत की आजादी का कोई वास्ता नहीं था ! क्या जरुरत थी नमक आन्दोलन की ? 1942 में नारा दिया “करो या मारो“ क्या कुछ असर हुआ इस नारे का अंग्रेजो पर ! या ये नारा उन्ही के लिए था ???
नारा था “करो या मारो” लेकिन उसमे भी अहिंसा का पाठ था, अंग्रेजो के खिलाफ अहिंसा की सीमा में रहकर लड़ो और उसके बाद मर जाओ , कही भी “मारने” का कोई शब्दांश नहीं था !!
क्या इन सबके बावजूद “महत्मा गाँधी” आजादी के महानायक थे ????
या महानायक वो था जिसने जिसने ३२ वर्ष की आयु में फंसी का फंदा चूमा जिसने महलों को छोडकर कारावासो में पना अधिकांश समय बिताया ! जिसने केवल सोचा नहीं उसे कर दिखाया !!
इन सब प्रश्नों के उत्तर हमें सोचने है, देश हमारा है देश का इतिहास हमें लिखना है ,
गहन चिंतन और इतिहास मंथन से वास्तविकता सामने जरुर आयेगी !!
कुछ पंक्तियाँ “डा. मदनलाल वर्मा” जी की :
भगत सिंह सुखदेव राजगुरु की कुर्बानी याद करें,
वैसी शक्ति हमें भी दे यह माँ से हम फरियाद करें;
नव-सम्वत्सर पर सबको है पावनतम संदेश यही-
इस जीवन का एक-एक क्षण व्यर्थ न हम बर्बाद करें.

Sorry !! आपकी यह वास्तविकता थोड़ी कड़वी है : अंकुर मिश्र “युगल”

दिल्ली (एन.सी.आर.) के कालेजो की प्रसिद्धि और मान्यता तो विश्व्प्रसिध्ध है, लेकिन वास्तविकता कुछ और भी हो सकती है ऐसा सोचना “गलत” तो नहीं अपितु सत्यता से ज्यादा सत्य होगा ! अधिकतर कालेज शिक्षा के लिए नहीं बल्कि केवल “डिग्री” के लिए खुले हुए है जिनका काम केवल “डिग्री” देना ही है, विभिन्न प्रदेशो से आने वाले वाले छात्र-छात्राओं को लुभाने के अनेक लाजबाब तरीको का उपयोग कैसे करते है कोई अच्छी तरह से सीख सकते है ! स्ववित्तपोषी कालेजो के मालिकों का मलिकानापन कालेज में हमेशा झलकता है ! विशाल इमारतों को सुंदरता के पलड़े में बैठाकर कालेजो को जिस तरह प्रस्तुत किया जाता है उसमे यही झलकता है “सुंदरता की इससे अच्छी कोई दूसरी ईमारत हो ही नहीं सकती” ! लेकिन अंदर के खोखलेपन का अनुभव होने पर जिस अनुभव की अनुभूति होती है वास्तव में अतुन्नीय होती है ! वैसे वास्तविकता तो ये भी है शिक्षा और अशिक्षा प्राप्त करने आने वाले छात्रों के प्रतिशत भी ५०-५० ही होता है ! परन्तु कालेज किन ५०% छात्रों के साथ चल रहा है इसका अनुभव कोई अपनी पूरी डिग्री में नहीं कर सकता ! भारत में “इंजिनीरिंग” सबसे अतुलनीय “डिग्री” मणि जाती है इसलिए सभी का सपना होता है “इंजिनियर” बनना, इसलिए घर से किसी भी तरह इंजीनियरिंग के द्वार में प्रवेश कर ही जाते है फिर वो कोई भी कालेज हो ! यही कहानी है दिल्ली (एन.सी.आर.) के कालेजो की जहां विद्यार्थी इसलिए आते है की ये भारत का तकनिकी केंद्र है ! यहाँ के विश्वविद्यालयो से डिग्री करने के बाद “बेरोजगारी” जैसे शब्दों का सुनना समाप्त हो जायेगा ! लेकिन 100% Placement”.. Guarantee..
“TAG” वाले कालेजो की वास्तविकता क्या होती है यहाँ ही पता चलता है ! यहाँ हजार से ऊपर कालेज निर्मित है जिनमे लाखो की संख्या में विद्यार्थी अपना जीवन बनाने का प्रयास कर रहे है ! तकनिकी , मैनेजमेंट, फार्मेसी एवं अन्य अनेक कोर्सो में लोग रोजगार पाने की कोशिश कर रहे है ! और इसमें सफलता भी पा रहे है लेकिन असफलता का प्रतिशत कुछ ज्यादा ही है !
आखिर इसका जिम्मेदार कौन है ???
एक छात्र/क्षात्रा लाखो की संपत्ति खर्च करके यहाँ व्यावसायिक शिक्षा के लिए आता है लेकिन उस पर क्या बिताती है जब वो कोर्स समाप्ति के बाद अपने को उस स्थिति से भी बुरा पता है जहाँ से वो आया था !!
आखिर इसका जिम्मेदार कौन ??
यहाँ उन छात्रों की बात भी नहीं जिनकी शैक्षिक-स्थिति सही नहीं लेकिन उनका जिम्मेदार कौन जिनको
100% Placement”.. Guarantee.. के “TAG” के बव्जूओद कालेज रोजगार नहीं दिला पा रहा !!
और उसके लिए जिम्मेदार कौन है जिन्हें इस विशाल “IT-Hub” के बावजूद नौकरी के लिए बाहर जाना पड़ता है !!
जिम्मेदार कोई भी हो (सरकार, कालेज-मैनेजमेंट ....या और कोई ) लेकिन नुकसान उस छात्र/छात्रा का ही होना है , जो देश का भविष्य हो सकता है !!

अपना दीप जलाना होगा : अंकुर मिश्र "युगल"


खुली चुनौती देता हमको , बढ़ता हुआ अँधेरा !
पल-पल दूर जा रहा हमसे, उगता हुआ सवेरा !!
निशा नाचती दिशा-दिशा में उडी तिमिर की धुल !
अपना दीप जलना होगा , झंझा के प्रतिकूल !!
आत्मा की चिर दीप्त वर्तिका, को थोडा उकसा दो !
मांगो नहीं ज्योति जगती से, लौ बन के मुस्का दो !!
जगमग जगती के “अंकुरण” से, खिले ज्योति के फूल !
माथे से फिर विश्व लगाये, इस धरती की धुल !!
अमा ,क्षमा मांगे भूतल से, भागे सघन अँधेरा !
अवनी का अलोक स्तंभ, बन जागे भारत मेरा !!
आर्य संस्कृति के परवाने, आओ सीना ताने !
दीप बुझाने नहीं , ज्वलित पंखो से दीप जलाने !!
तब समझूंगा तुम जलने की, कितनी आग लिए हो !
और दहकते प्राणों में, कितना अनुराग लिए हो !
........ ""श्री लाखन सिंह भदौरिया जी "

भीड़ का मतलब “वोट” नहीं होता “राजकुमार जी” : अंकुर मिश्र ”युगल”


उत्तर प्रदेश के विधानसभा के चुनावो ने ऐसे रहस्यों का खुलासा किये है जिनका खुलासा केवल जनता ही कर सकती थी !
जिस तरीके से पिछली पंचवर्षीय में “सपा” सरकार का विकल्प “बसपा” बनी थी ठीक उसी तरह इस पंचवर्षीय में जनता ने परिवर्तन ही सबसे अच्छा विकल्प समझा और “सपा” को “बसपा” का अतुलनीय विपल्क घोषित किया ! वैसे परिवर्तन ही प्रकृति का नियम है ! जनता विकास में भी परिवर्तन ही चाहती है और उसने वही किया ! इस चुनाव में सबसे बड़ा दृश्य ये था की जनता जगरूप हो चुकी है इसी वजह से इस बार वोटो का प्रतिशत भी बढ़ा ! इसे “अन्ना” मुहीम का परिणाम कहे या जनता की जागरूपता ?? कुछ भी बेहतरता भारतीय राजनीती में ही अति है !! ये तो बात थी, प्रदेश की दो बड़ी पार्टियों और उ.प्र. राजनीती की ! वाही नजर डाले देख की दो बड़ी पार्टियों : “भाजपा और कांग्रेस” की तो दृश्य कुछ अदृश्य सा लगता है ! दोनों पार्टियों ने अपने अपने दिग्गजों को लेकर उ.प्र. की राजनीती की लेकिन परिणाम कुछ विपरीत ही आये ! वैसे भाजपा के पास ज्यादा खोने के लिए कुछ था नहीं क्योंकि उनका ज्यादा कुछ दाव पे नहीं था ! लेकिन कांग्रेस ने उ.प्र. की राजनीती जिस “राजकुमार” को दांव में लगाकर की वो जरुर द्रिश्नीय था ! कांग्रेस ने विधानसभा चुनावो में दांव में लगाया “राहुल गाँधी” को, राहुल गाँधी ने प्रदेश में 2 महीनो में 211 सभाए कर डाली ! और
इन सभाओ में लोगो की भीड़ “करोणों” में थी,
राहुल गाँधी ने अपनी छवि के विपरीत “भाषण” दिए !
जतिवाद्ता, स्थानवादिता का सहारा लिया जो “जनता” उनसे भी पूछ सकती थी ! लेकिन जनता शांत रही और उसी वाही जनता जो राहुल का भाषण सुनने करोणों में आती थी उसने कांग्रेस को विधानसभा में “पचासा” भी न मरने दिया ! उसने अपने अनुसार अपनी सरकार चुनी और एक अन्य युवा को मौका देना ज्यदा उपयोगी समझा !
“अखलेश यादव” की अग्निपरीक्षा है इस बार और देखते है वो इसमें कितने खरे उतरते है , उन्हें याद रखना होगा आंगे “लोकसभा” चुनाव है!

"मतदान” का अधिकार अति अनिवार्य : अंकुर मिश्र "युगल"



निरंतर किसी व्यक्ति विशेष को आधार बनाकर उसे उस संज्ञा से परिभाषित करना जिससे उसे तनिक भी फर्क नहीं पढ़ने वाला, किस बात को दर्शाता है ! शत प्रतिशत कोई भी कही भी नहीं दिखा सकता और जिससे आप इस तरह की कल्पना करते हो तो उस व्यक्ति में कोई कमी नहीं है कमी आप में है !!!
आज “फेसबुक” जो वास्तव में एक ऐसा प्लेटफार्म है जिसके जरिये हम सभी सकारात्मक तथ्यों को जानकारी कर सकते है लेकिन एक सीमित प्रयोग से !! इंटरनेट एक सूचना का असीमित माध्यम है जिसके जरिये हम दुनिया से और दुनिया हमसे जुडी रह सकती है लेकिन एक सीमित और सकारात्मक प्रयोग से ! कुछ समय पहले कुछ समूहों ने और कुछ व्यक्तित्यो ने इन पर “केस” किया ! कारण यहाँ के नकारात्मक वस्तुए जो एक साधारण से वातावरण को दूषित करती जा रही है !
यह सभी जानते है किसी व्यक्ति विशेष में कोई बुराई नहीं होती है न ही किसी समूह में, कमी हमेशा उनके क्रियाकलाप के तरीको में होती है ! और तरीको के विरोध का जो रवैया जनता अपनाती है वह उससे भी ज्यादा भयावह होता है ! वह केवल उन तथ्यों पर ध्यान देकर विचार करती है जिनमे व्यक्ति की बुराई झलकती है, उनकी स्थिति को भी समझना उनकी प्राथमिकता होनी चाहिए!
यहाँ आज की भारतीय संस्कृति को जिस आधार ने उल्लंघित किया किया है वह आज की सबसे प्रमुख और सहायतार्थ तथ्य “इंटरनेट”. जिसमे कई तरह की अश्लील सामग्री परोशी जा रही है जिससे व्यक्ति विशेष या समूह की ही नहीं बल्कि पुरे देश की धूमिल छवि विश्व के सामने प्रकट होती है और करने में किसी बाहरी ताकत का नहीं बल्कि हम सभी का हाथ है ! इस बार खतरा सुरक्षा, धन, सरकार में नहीं बल्कि देश की संस्कृति में है ! विश्व के सामने “फेसबुक” या अन्य “सोशील नेटवर्किंग साइट्स” के जरिये जो भद्दी छवि देश के नेताओ की प्रस्तुत की जा रही है उससे उनके कर्मो को तो कोई नही लेकिन देश की छवि को बहुत फर्क पड़ने वाला है ! आखिर उस सामग्री मतलब है क्या ??
नेताओ के प्रति आक्रोश !! वैसे उस आक्रोश को व्यक्त करने के और भी तरीके है जो साफ स्वच्छ है और उनसे कुछ सुधार भी हो सकता है !! नेताओ और उनके क्रियाकलापों के प्रति आक्रोश को प्रकट करने का सबसे बड़ा आधार है हमारा सबसे बड़ा अधिकार “वोट” !!
यही वो ताकत है जिससे देश में बदलाव आ सकता है, लेकिन जनता उसी के प्रति जगरूप नहीं है, जब चुनाव आते है तब उस अधिकार को प्रयोग न करके उसी को बढ़ावा देते है जिसे रोकने के लिए खुद और देख को अभद्रता के गलियारे में खड़ा करते है !!
देश उत्थान के लिए “मतदान” और “मतदाता” के अधिकारों को समझकर 100% मतदान की कोशिश करें, ऐसा करने से देश-पतन वाले क्रियाकलापों की जरुरत नहीं पड़ेगी !!

क्या उसने “मुझे” ये कहा तो ये लो मेरा “जबाब” !! : अंकुर मिश्र “युगल”

राजनैतिक दुर्घटनाओ से ग्रसित हिंदुस्तान में चुनावो की श्रंखला की शुरुआत हो चुकी है, और इस श्रंखला में कई राज्यों के चुनाव पंक्तिबद्ध है,पुरातन राजनीती के अनुसार चुनाव प्रचार की प्रक्रिया भी शुरू हो चुकी है, चुनाव देश के है, सरकार देश व् प्रदेश के लिए बननी है, और उसमे प्रमुख भागीदारी भी जनता की है और उसी को चुनना है कौन हम पर राज्य करेगा , इन सबके बावजूद राजनेताओ का मुद्दा कुछ अलग ही दिखाई दे रहा है, दुनिया का सबसे बड़ा “लोकतंत्र” भारत देश में है, दुनिया की सबसे बड़ी राजनीती भारत में होती है लेकिन इसका सबसे बड़ा खोखला-पन भी दुनिया में धीमे-धीमे प्रसिद्द होता जा रहा है !




दुनिया का हर देश एक ही मुद्दा रखता है “विकास” !!
कहने को तो ये मुद्दा भारत में भी है और राजनेताओ की सुने तो वो कहते भी है की हमारी पार्टी देश के “विकास” को लेकर बहुत चिंतित है लेकिन यह वाक्य कितने सही है और कितने गलत ???? ये एक यहाँ का निवासी ही बता सकता है !यह किसी विशेष राजनैतिक दल की बात नहीं है भाजपा हो !!
कांग्रेस हो !! माकपा हो !! सपा हो !! बसपा हो !!
या और कोई सा भी राजनैतिक दल सभी के चुनाव के पहले या बाद की प्रक्रियाये एक ही तरह की होती है ये ऍम जनता को भी पता है !
आज की राजनीती ही देख लो चुनाव प्रचार की रैलियां जोरो पर है , चुनाव प्रचार के ऐसे सहारे लिए जाते जो वास्तव में अतुलनीय है ! पार्टी प्रवक्ता या पार्टी प्रचारक प्रचार में “विकास” शब्द छोरकर बांकी सभी अशोभनीय शब्दों का प्रयोग करते है एक दूसरे के ऊपर आरोपो का प्रत्यारोपण जिनसे जनता का कोई मतलब नहीं है !! एक कहेगा “क्या उसने “मुझे” ये कहा तो ये ले मेरा “जबाब” ! जबाब की उस भाषा में होगा जो ये सिद्ध कर देता है की हमारे राजनेता कितने “शिक्षित” है ! वैसे भी भारतीय लोकतंत्र में ये नियम “पास” हो चूका है की कोई भी “क्रिमिनल” चुनाव लड़ सकता है अब इस भाषा से ये भी सिद्ध होता है की कोई भी “गवांर” चुनाव लड़ सकता है !!
क्या किसी राजनैतिक पार्टी का मुद्दा "विकास" भी है या फिर सबका एक ही मुद्दा है एक दूसरे के ऊपर पलटवार ??
क्या कोई उस 99% जनता की भी बात करेगा जो कुल संपत्ति के 1% में पल रही है या फिर उन्ही 1% की बात करोगे जो 99% संपत्ति के मालिक है ??
क्या अपने विकास की चिंता को छोड़कर 125 करोण लोगो के विकास के बारे में नहीं सोच सकते ??
अरे देश के आकाओ आखिर देश की जनता को समझते क्या हो ??
क्या भूल गए वो एक बार जग गई तो भारत हिल जायेगा, चुनाव में सम्भलियेगा जरा कही जनता जाग न जाये और आपका विकास रुक न जाये ??