अकेला...

अकेला...
गाँव और माँ से
दूर जब-जब हुआ,
तरक्की
“किश्तों और रिश्तो” की करने
मै एक शहर को बढ़ा,
जहा एक कमरा था
किराये का
और 'मै'
रोज रोज कुछ नए नए
लोग मिलते मगर
मगर ‘मै’ अकेला था
कल भी और आज भी बिना लोगो के...
अब बस साथ थे तो :
ख्वाहिशें
उम्मीदें,
ज़रूरतें,
और ज़िम्मेदारियाँ.....
और किराये का वो कमरा
जो अब ‘माँ’ बन चुका था
रोज दुलारता,
संवारता,
और रात तक इंतजार में जागता रहता था...
जो अब भी हमेशा मेरे साथ रहता है,
अंकुरण के युगल में...
#YugalVani