'होली'

'होली'
क्या लिखू तुझ पर,
क्या तस्वीर बनाऊ,
न लफ्ज है और न ही रंग
तेरी खूबसूरती के बयान के लिए...
बचपन में कभी पेन्सिल से
काला गोला बनाकर
पीला रंग भरा था उसमे
जो 'आम' तो कभी 'सूरज'
बन गया था 'युगल'
तब तक यही था रंगों का मायना
मेरे इस संसार का...
फिर बाजार में बिकते दिखे
कागजो में लपेटकर कुछ रंग
गुलाबी, लाल, पीला, हरा
और सुनहरी... सब रंग
एक साथ, एक  दुकान में ऐसे थे
मानो कोई 'परी' रंगों से लिपटी हो
और दुकान के बाहर मानो
पूरे शहर में रंगीन धूप सी बिखर गई हो
किसी ने बताया ये "होली" है...
भींगे भींगे लोग,
मिठाइयों के साथ रंगीन धुप,
हँसते और दौड़ते बच्चे,
रात को होलिका की आग
और दिन में बुजुर्गो संग फाग
बड़ा रंगीन होता है ये त्यौहार, 'युगल'
कुछ रंगीन दिन में रंग नहीं खेल पाते
अगले दिन सड़क पर पड़े रंग छुडाते है
बच्चे टूटी पिचकारिया उठाते है और
अमीरों के यहाँ से कुछ मिठाइयाँ ले आते है
और 'माँ'
'माँ' सर पर घड़ा रख
रोज दूर-दूर से पानी ले आती है
रोज भीग जाती है,
उसकी होली तो रोज ही हो जाती है, 'युगल'    
#YugalVani